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Tuesday 13 December 2016

पटना फिल्‍म फे‍स्टिवल 2016 : रविकिशन , विधायक संजय यादव , आनंद गहतराज रहे मौजूद


पटना : बिहार राज्‍य फिल्‍म विकास एवं वित्त निगम और कला संस्‍कृति विभाग, बिहार के संयुक्‍त तत्‍वावधान आयोजित पटना फिल्‍म फे‍स्टिवल 2016 के पांचवे दिन आज रिजेंट सिनेमा में लिसन अमाया, द हेड हंटर और यंग सोफी बेल फिल्‍म का प्रदर्शन हुआ। वहीं, रविंद्र भवन के दूसरे स्‍क्रीन पर भोजपुरी फिल्‍म सैंया सिपहिया, कब होई गवना हमार और खगडि़या वाली भोजी दिखाई।इसके अलावा तीसरे स्‍क्रीन पर परशॉर्ट एवं डॉक्‍यमेंट्री फिल्‍मों भी दिखाई गई।
फिल्‍म फेस्टिवल में आज बिहार में फिल्‍म मेकिंग की संभावना और फिल्‍मी गीतों में फोक इलिमेंटस विषय पर विस्‍तार से चर्चा हुई। वहीं, रविंद्र भवन में ओपन हाउस डिशकसन में भोजपुरी सुपर स्‍टार समेत अन्‍य अतिथियों ने दर्शकों के सवााल का जवाब दिया। अंत में सभी अतिथियों को बिहार राज्‍य फिल्‍म विकास एवं वित्त निगम के एमडी गंगा कुमार ने शॉल और स्‍मृति चिन्‍ह देकर सम्‍मानित किया। इस दौरान बिहार राज्‍य फिल्‍म विकास एवं वित्त निगम की विशेष कार्य पदाधिकारी शांति व्रत भट्टाचार्य, अभिनेता विनीत कुमार, फिल्‍म समीक्षक विनोद अनुपम, मनोज राणा, अजीत अकेला, फिल्‍म फेस्टिवल के संयोजक कुमार रविकांत, मीडिया प्रभारी रंजन सिन्‍हा मौजूद रहे।  कल रविंद्र भवन में दोपहर तीन बजे भोजपुरी सुपरस्‍टार रवि किशन ओपेन हाउस में लोगों से बातचीत करेंगे।

बिहार में फिल्‍म मेकिंग की संभावनाएं
विकास चंद्रा (यश राज कंपनी से जुड़े हैं। लिसन अमाया का संवाद लिखा) - फिल्‍म मेकिंग केे लिए बहुत सारी सुविधाओं का होना अनिवार्य है। तभी फिल्‍म मेकर आपके लोकसंस को चुनेंगे। प्रकाश झा ने बिहार की कहानी पर कई फिल्‍में बनाई, मगर उनकी लोकेसंस भोपाल, इंदौर जैसे शहर रहे, क्‍योंकि वहां उन्‍हें सारी सुविधाएं उपलब्‍ध होती हैं। फिल्‍म निर्माण के लिए स्‍थानीय तौर पर इंफ्रस्‍ट्ररक्‍चर काफी मायने रखता है। तभी निर्माता ऐसे जगहों पर फिल्‍म शूट करने के लिए तैयार होते हैं। उन्‍होंने कहा कि फिल्‍मों का कल्‍चर रातों - रात चेंज हो जाता है। इसलिए लोकेसंस के हिसाब से फिल्‍म की कहानियां भी मायने रखती हैं। स्‍थानीय कहानी से लोगों जुड़ाव होता है। इसलिए आज के दौर में किसी भी राज्‍य में फिल्‍मों के विकास इंटरनल स्‍टोरीज को समाने लाने की भी जरूरत है।
प्रवीण कुमार (अवार्ड विनिंग सिनेमा नैना जोगिन के मेकर) - फिल्‍म मेकिंग के लिए आर्थिक माहौल का होना भी जरूरी है, जो अभी बिहार में नहीं है। सत्तर के दशक तक ग्रामीण परिवेश और बिहार के कैरेक्‍टर दिखते थे। लेकिन इसके बाद बिहार में आर्थिक पतन शुरू हुआ। बेरोजगारी और पलायन बढे। इसका नुकसान सांस्‍कृतिक गतिविधियों को भी हुआ। लेकिन आज बिहार सरकार फिल्‍म पॉलिसी ला रही है। इसे प्रक्रिया को प्राथमिकता देते हुए और तेजी लाने की जरूरत है, वरना फिल्‍म पॉलिसी डॉक्‍यूमेंट में सिमट कर रह जाएगा।
मैं खुद बिहार में फिल्‍म बनाना चाहूंगा।
सुमन सिन्‍हा (रीजेंट सिनेमा के ऑनर) - आज भी कंटेंट ही सिनेमाा चलाती है। हम कंटेंट के हिसाब से तय करते हैं कि सिनेमा देखने लायक है या नहीं। एक मैथिली फिल्‍म का उदाहरण देते हुए कहा - अगर क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्‍मों में भी मुंबई दिखाई जाएगी, तो जाहिर सी बात है लोग फिल्‍म से खुद को जोड़ नहीं पाएंगे। मैं 32 सालों से देख रहा हूं कि कंटेंट और अच्‍छी संगीत वाली फिल्‍में ही लोगों को पसंद आती है। हाल ही रिलीज फिल्‍म बेफिक्रे यश राज के स्‍टैंडर्ड से मैच नहीं करती है। इंडिया के दर्शक आज भी कंटेंट के भूखे हैं। इसलिए फिल्‍म मेकरों से गुजारिश है कि ईमानदार जिद्द के साथ कंटेंट बेस्‍ड फिल्‍म बनाएं, हम सहयोग करेंगे।
विनोछ अनुपम ( फिल्‍म समीक्षक और चर्चा के मॉडरेटर) - सिनेमा में बिहार है, मगर बिहार में सिनेमा नहीं दिखती है। हालांकि अपुष्‍ट प्रमाण के आधार पर फिल्‍म निर्माण की प्रक्रिया बिहार में पुरानी है। जब दादा साहब फाल्‍के फिल्‍म बना रहे थे, उस दौर में यहां राजदेव भी फिल्‍म निर्माण की प्रक्रियाा से जुडे थे। हिंदी सिनेमा में फिल्‍म तीसरी कसम को बिहार का प्रतिनिधि सिनेमा कहा जा सकता है। आज आर्थिक चाइलेंज भी बिहार में फिल्‍म मेकिंग की राह में एक बाधक है। इसलिए सिनेमा में बिहार भौगोलिक रूप से नहीं दिखता है, मगर स्‍क्रीन पर जरूर दिखता है।
फिल्‍मी गानों में लोक तत्‍व
शैलेंद्र शीली (उड़ता पंजाब) - आज सिनेमा की पहचान है कि संगीत। इसलिए मेरी कोशिश होती है सकारात्‍मक गीत लिखा जाए। फोक संगीत को अगर लोगों तक पहुंचाना है तो उसका बड़ा जरिया सिनेमा ही है। लोक संगीत मेरे लिए एक सामान्‍य प्रक्रिया है। मेरे लिखे गानों में मुहावरे, लोक संगीत जैसे तत्‍व का प्रभाव रहता है। अक्‍सर अपने गानों में उर्दू और पंजाबी की झलक मिलती है। मैं लोक तत्‍व और संगीत को जीता हूं, इसलिए शायद अपने गीतों में इनका प्रभाव रोक नहीं पाता। अगर देखा जाए तो हिंदी गानों में लोकगीत के मिश्रण को लोग पसंद भी करते हैं। उन्‍होंने कहा कि बांबे में लोगों की सबसे बड़ी त्रासदी है कि उन्‍हें हिंदी नहीं आती है। हम उस दौर में हैं, जहां लोग शब्‍दकोष नहीं पलटते। बड़े - बूढों से कहानी नहीं सुनते। इसलिए आज कुछ गानों में लीक से हटे नजर आते हैं। हमें गानों को लिखते समय सिचुएशन को भी ध्‍यान में रखना होता है। वहीं, सिनेमा क्रियेटिव‍िटी के साथ कॉमर्स भी है। संगीत से बहुत पैसे आते हैं, इसलिए प्रोड्यूसर पर भी निर्भर करता है।    
प्रशंत इंगोले (बाजीराव मस्‍तानी) - हिंदी सिनेमा में फोक एलिमेंट निर्भर करता है फिल्‍म की कहानी और सिचुएशन पर। आज फिल्‍मों में एक फॉर्मूलाा बन गया है आइटम, रोमांटिक, सैड और पार्टी सौंग, ताकि संगीत को बेचा जाए। म्‍यूजिक इंडस्‍ट्री किसी भी तरह के सिनेमा का फेस है। कुछ लोगों लीक से भटक जाते हैं और जबरदस्‍ती म्‍यूजिक इंसर्ट कर देते हैं। कभी - कभी ऐसा हमें मजबूरी में भी करना पड़ता है। मगर विशाल भारद्वाज, इम्तियाज अली, आशुतोष गोवारिकर,

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