पिछले कुछ दिनों से टीवी चैनल पर टी आर पी वार चल रहा है । टी आर पी के फर्जीवाड़े को लेकर सभी न्यूज़ चैनल बौखलाए हुए हैं । खुलेआम नाम लेकर चैनल एक दूसरे पर भड़ास निकालने में लगे हैं । अखबारों के भी यही हाल है । राजनीतिक खेमे में बंटकर अपने अपने आका की लाल करने में लगे हैं । ऐसे में खबरों का स्वरूप क्या होगा ? कितनी निष्पक्षता होगी ? अगर कुछ साल पहले और आज की पत्रकारिता की बात मैं अपने अनुभव के आधार पर करू तो अंतर समझ मे आ जायेगा । बरसो पहले मैं अखबारों में पाठकों के कॉलम में रोजाना कुछ न कुछ लिखता था । उस दौर में उसे पत्रलेखक कहा जाता था । चूंकि मैं बिहार से हु तो वहां के अखबार हिंदुस्तान और आज में लगभग रोजाना मेरे पत्र छपते थे । हमारा मुकाबला कंकड़बाग पटना के हर्षवर्धन और सुनील सिंह यादव से था । हर्षवर्धन के पिताजी दैनिक हिन्दुतान में काम करते थे और सुनील हर्षवर्धन के मामा का लड़का था । दोनों अच्छा लिखते थे । उनकी राय अक्सर गली मोहल्ले की समस्या को लेकर होती थी तो मेरी राय में समस्याओं के अलावा देश विदेश की समस्या को लेकर भी होती थी ।खैर, उस दौरान हिन्दुतान में पाठकों के लिए एक दैनिक समस्याओं का स्तम्भ शुरू किया जिसका नाम था आपबीती । इस स्तम्भ में कोई भी पाठक किसी विभाग से होने वाली परेशानी का जिक्र करता था और सबसे अच्छी बात थी कि हिंदुस्तान उसे प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित करता था । मैं उस समय पटना में पढ़ाई कर रहा था और अक्सर शाम के वक्त खासमहल इलाके के नवरंग शू स्टोर के मालिक शंकर जी के साथ गप्पे लड़ाया करता था । बदकिस्मती से शंकर जी की माता जी बीमार हुई और उन्हें पटना के इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान में एडमिट कराया गया था । उनके गोल ब्लाडर का ऑपरेशन होना था जिसके लिए खून की ज़रूरत थी । हम दस दोस्त खून देने हॉस्पिटल पहुचे लेकिन लैब वाले ने एक पर्ची लिखकर एक प्राइवेट लैब में भेजा जहाँ पनद्रह रुपये प्रति व्यक्ति ब्लड ग्रुप की जांच का लिया गया । यह बात मुझे काफी बुरी लगी । मैंने वही बैठे बैठे एक पन्ने में सारी बात लिखी और हिंदुस्तान के कार्यालय के लेटर बॉक्स में डाल दिया । अगले दिन " आखिर गरीब रोगी क्या करे " शीर्षक से अगले ही दिन वह छप गया । सुबह देख कर मैं काफी खुश हुआ , अचानक से दोपहर 12 बजे स्कूटर से मेरा पता ढूंढते ढूंढते एक आदमी मेरे पास आया और रोने लगा और बताया मेरी नौकरी बचा लीजिये । उसने बताया कि सुबह 9 बजे स्वास्थ्य मंत्री महावीर प्रसाद ने हॉस्पिटल का औचक निरीक्षण किया और लैब के सारे स्टाफ के खिलाफ कारवाई का आदेश दिया । ये जो इंसान आया था लैब का कर्मचारी था और प्राइवेट लैब जहां हमने जांच कराई थी उसका मालिक भी था । उस इंसान ने 1000 रुपये देने की कोशिश की लेकिन मैंने मात्र 150 रुपये लिए जो उस प्रायवेट लैब वाले ने हम दसों के खून का ग्रुप जांचने के एवज में लिया था । यह इकलौता उदाहरण नही है । कंकड़बाग पार्क की सफाई , लेटर बॉक्स , चापाकल सहित कई काम मैंने मात्र पत्र लिखकर करवाये थे ।यानि उन दिनों काले अक्षर का इतना महत्व था और आज ? अखबार के हेडलाइन से सामाजिक , आर्थिक और देश हित की खबरे गायब हो गई है । संपादकों से अधिक रुतबा मार्केटिंग हेड का हो गया है । वो बिना संपादक को बताए अखबार में पेड़ न्यूज़ डाल सकता है और कोई भी न्यूज़ निकलवा सकता है । ऐसा इसीलिए क्योंकि वह अखबार को आर्थिक फायदा दिलाता है । टीवी चैनलों का हाल तो और बुरा है । सबकी अपनी अपनी विचार धारा है , अपना अपना उद्देश्य है , ऐसे में जनहित का मुद्दा खत्म हो गया है । किससे फायदा है ये देखा जाने लगा है । बहरहाल यह कहा जा सकता है कल का काला अक्षर दिखने में तो काला था पर उसका असर आम लोगों के लिए सुनहरा था लेकिन आज का काला अक्षर जिसे रंगीनियत ने अपनी चपेट में ले लिया है , वह काजल की कोठरी से निकले शब्द बन गए हैं।
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Saturday, 10 October 2020
स्तरविहीन पत्रकारिता : काला अक्षर , पहले और अब ?
Written By Uday Bhagat
पिछले कुछ दिनों से टीवी चैनल पर टी आर पी वार चल रहा है । टी आर पी के फर्जीवाड़े को लेकर सभी न्यूज़ चैनल बौखलाए हुए हैं । खुलेआम नाम लेकर चैनल एक दूसरे पर भड़ास निकालने में लगे हैं । अखबारों के भी यही हाल है । राजनीतिक खेमे में बंटकर अपने अपने आका की लाल करने में लगे हैं । ऐसे में खबरों का स्वरूप क्या होगा ? कितनी निष्पक्षता होगी ? अगर कुछ साल पहले और आज की पत्रकारिता की बात मैं अपने अनुभव के आधार पर करू तो अंतर समझ मे आ जायेगा । बरसो पहले मैं अखबारों में पाठकों के कॉलम में रोजाना कुछ न कुछ लिखता था । उस दौर में उसे पत्रलेखक कहा जाता था । चूंकि मैं बिहार से हु तो वहां के अखबार हिंदुस्तान और आज में लगभग रोजाना मेरे पत्र छपते थे । हमारा मुकाबला कंकड़बाग पटना के हर्षवर्धन और सुनील सिंह यादव से था । हर्षवर्धन के पिताजी दैनिक हिन्दुतान में काम करते थे और सुनील हर्षवर्धन के मामा का लड़का था । दोनों अच्छा लिखते थे । उनकी राय अक्सर गली मोहल्ले की समस्या को लेकर होती थी तो मेरी राय में समस्याओं के अलावा देश विदेश की समस्या को लेकर भी होती थी ।खैर, उस दौरान हिन्दुतान में पाठकों के लिए एक दैनिक समस्याओं का स्तम्भ शुरू किया जिसका नाम था आपबीती । इस स्तम्भ में कोई भी पाठक किसी विभाग से होने वाली परेशानी का जिक्र करता था और सबसे अच्छी बात थी कि हिंदुस्तान उसे प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित करता था । मैं उस समय पटना में पढ़ाई कर रहा था और अक्सर शाम के वक्त खासमहल इलाके के नवरंग शू स्टोर के मालिक शंकर जी के साथ गप्पे लड़ाया करता था । बदकिस्मती से शंकर जी की माता जी बीमार हुई और उन्हें पटना के इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान में एडमिट कराया गया था । उनके गोल ब्लाडर का ऑपरेशन होना था जिसके लिए खून की ज़रूरत थी । हम दस दोस्त खून देने हॉस्पिटल पहुचे लेकिन लैब वाले ने एक पर्ची लिखकर एक प्राइवेट लैब में भेजा जहाँ पनद्रह रुपये प्रति व्यक्ति ब्लड ग्रुप की जांच का लिया गया । यह बात मुझे काफी बुरी लगी । मैंने वही बैठे बैठे एक पन्ने में सारी बात लिखी और हिंदुस्तान के कार्यालय के लेटर बॉक्स में डाल दिया । अगले दिन " आखिर गरीब रोगी क्या करे " शीर्षक से अगले ही दिन वह छप गया । सुबह देख कर मैं काफी खुश हुआ , अचानक से दोपहर 12 बजे स्कूटर से मेरा पता ढूंढते ढूंढते एक आदमी मेरे पास आया और रोने लगा और बताया मेरी नौकरी बचा लीजिये । उसने बताया कि सुबह 9 बजे स्वास्थ्य मंत्री महावीर प्रसाद ने हॉस्पिटल का औचक निरीक्षण किया और लैब के सारे स्टाफ के खिलाफ कारवाई का आदेश दिया । ये जो इंसान आया था लैब का कर्मचारी था और प्राइवेट लैब जहां हमने जांच कराई थी उसका मालिक भी था । उस इंसान ने 1000 रुपये देने की कोशिश की लेकिन मैंने मात्र 150 रुपये लिए जो उस प्रायवेट लैब वाले ने हम दसों के खून का ग्रुप जांचने के एवज में लिया था । यह इकलौता उदाहरण नही है । कंकड़बाग पार्क की सफाई , लेटर बॉक्स , चापाकल सहित कई काम मैंने मात्र पत्र लिखकर करवाये थे ।यानि उन दिनों काले अक्षर का इतना महत्व था और आज ? अखबार के हेडलाइन से सामाजिक , आर्थिक और देश हित की खबरे गायब हो गई है । संपादकों से अधिक रुतबा मार्केटिंग हेड का हो गया है । वो बिना संपादक को बताए अखबार में पेड़ न्यूज़ डाल सकता है और कोई भी न्यूज़ निकलवा सकता है । ऐसा इसीलिए क्योंकि वह अखबार को आर्थिक फायदा दिलाता है । टीवी चैनलों का हाल तो और बुरा है । सबकी अपनी अपनी विचार धारा है , अपना अपना उद्देश्य है , ऐसे में जनहित का मुद्दा खत्म हो गया है । किससे फायदा है ये देखा जाने लगा है । बहरहाल यह कहा जा सकता है कल का काला अक्षर दिखने में तो काला था पर उसका असर आम लोगों के लिए सुनहरा था लेकिन आज का काला अक्षर जिसे रंगीनियत ने अपनी चपेट में ले लिया है , वह काजल की कोठरी से निकले शब्द बन गए हैं।
पिछले कुछ दिनों से टीवी चैनल पर टी आर पी वार चल रहा है । टी आर पी के फर्जीवाड़े को लेकर सभी न्यूज़ चैनल बौखलाए हुए हैं । खुलेआम नाम लेकर चैनल एक दूसरे पर भड़ास निकालने में लगे हैं । अखबारों के भी यही हाल है । राजनीतिक खेमे में बंटकर अपने अपने आका की लाल करने में लगे हैं । ऐसे में खबरों का स्वरूप क्या होगा ? कितनी निष्पक्षता होगी ? अगर कुछ साल पहले और आज की पत्रकारिता की बात मैं अपने अनुभव के आधार पर करू तो अंतर समझ मे आ जायेगा । बरसो पहले मैं अखबारों में पाठकों के कॉलम में रोजाना कुछ न कुछ लिखता था । उस दौर में उसे पत्रलेखक कहा जाता था । चूंकि मैं बिहार से हु तो वहां के अखबार हिंदुस्तान और आज में लगभग रोजाना मेरे पत्र छपते थे । हमारा मुकाबला कंकड़बाग पटना के हर्षवर्धन और सुनील सिंह यादव से था । हर्षवर्धन के पिताजी दैनिक हिन्दुतान में काम करते थे और सुनील हर्षवर्धन के मामा का लड़का था । दोनों अच्छा लिखते थे । उनकी राय अक्सर गली मोहल्ले की समस्या को लेकर होती थी तो मेरी राय में समस्याओं के अलावा देश विदेश की समस्या को लेकर भी होती थी ।खैर, उस दौरान हिन्दुतान में पाठकों के लिए एक दैनिक समस्याओं का स्तम्भ शुरू किया जिसका नाम था आपबीती । इस स्तम्भ में कोई भी पाठक किसी विभाग से होने वाली परेशानी का जिक्र करता था और सबसे अच्छी बात थी कि हिंदुस्तान उसे प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित करता था । मैं उस समय पटना में पढ़ाई कर रहा था और अक्सर शाम के वक्त खासमहल इलाके के नवरंग शू स्टोर के मालिक शंकर जी के साथ गप्पे लड़ाया करता था । बदकिस्मती से शंकर जी की माता जी बीमार हुई और उन्हें पटना के इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान में एडमिट कराया गया था । उनके गोल ब्लाडर का ऑपरेशन होना था जिसके लिए खून की ज़रूरत थी । हम दस दोस्त खून देने हॉस्पिटल पहुचे लेकिन लैब वाले ने एक पर्ची लिखकर एक प्राइवेट लैब में भेजा जहाँ पनद्रह रुपये प्रति व्यक्ति ब्लड ग्रुप की जांच का लिया गया । यह बात मुझे काफी बुरी लगी । मैंने वही बैठे बैठे एक पन्ने में सारी बात लिखी और हिंदुस्तान के कार्यालय के लेटर बॉक्स में डाल दिया । अगले दिन " आखिर गरीब रोगी क्या करे " शीर्षक से अगले ही दिन वह छप गया । सुबह देख कर मैं काफी खुश हुआ , अचानक से दोपहर 12 बजे स्कूटर से मेरा पता ढूंढते ढूंढते एक आदमी मेरे पास आया और रोने लगा और बताया मेरी नौकरी बचा लीजिये । उसने बताया कि सुबह 9 बजे स्वास्थ्य मंत्री महावीर प्रसाद ने हॉस्पिटल का औचक निरीक्षण किया और लैब के सारे स्टाफ के खिलाफ कारवाई का आदेश दिया । ये जो इंसान आया था लैब का कर्मचारी था और प्राइवेट लैब जहां हमने जांच कराई थी उसका मालिक भी था । उस इंसान ने 1000 रुपये देने की कोशिश की लेकिन मैंने मात्र 150 रुपये लिए जो उस प्रायवेट लैब वाले ने हम दसों के खून का ग्रुप जांचने के एवज में लिया था । यह इकलौता उदाहरण नही है । कंकड़बाग पार्क की सफाई , लेटर बॉक्स , चापाकल सहित कई काम मैंने मात्र पत्र लिखकर करवाये थे ।यानि उन दिनों काले अक्षर का इतना महत्व था और आज ? अखबार के हेडलाइन से सामाजिक , आर्थिक और देश हित की खबरे गायब हो गई है । संपादकों से अधिक रुतबा मार्केटिंग हेड का हो गया है । वो बिना संपादक को बताए अखबार में पेड़ न्यूज़ डाल सकता है और कोई भी न्यूज़ निकलवा सकता है । ऐसा इसीलिए क्योंकि वह अखबार को आर्थिक फायदा दिलाता है । टीवी चैनलों का हाल तो और बुरा है । सबकी अपनी अपनी विचार धारा है , अपना अपना उद्देश्य है , ऐसे में जनहित का मुद्दा खत्म हो गया है । किससे फायदा है ये देखा जाने लगा है । बहरहाल यह कहा जा सकता है कल का काला अक्षर दिखने में तो काला था पर उसका असर आम लोगों के लिए सुनहरा था लेकिन आज का काला अक्षर जिसे रंगीनियत ने अपनी चपेट में ले लिया है , वह काजल की कोठरी से निकले शब्द बन गए हैं।
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